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भगवान शिव के 19 अवतार 

शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है , लेकिन बहुत ही कम लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं । धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव के 19 अवतार हुए थे । आइए जानें शिव के 19 अवतारों के बारे में । 

1- वीरभद्र अवतार 

भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था , जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था । जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया । उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए । शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया ।

2- पिप्पलाद अवतार


 मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है । शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका । कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए ? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना । पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए । उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया । श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे । देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे । तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है । शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था ।

3- नंदी अवतार 


भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं । भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है । नंदी ( बैल ) कर्म का प्रतीक है , जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है । इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे । वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा । शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की । तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया । कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला । शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा । भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया । इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए । मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ ।

4. भैरव अवतार 


शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है । एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे । तब वहां तेज - पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी । उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो । अत : मेरी शरण में आओ । ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया । उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं । भीषण होने से भैरव हैं । भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया । ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए । काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली । काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है ।

5- अश्वत्थामा 


महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल , क्रोध , यम व भगवान शंकर के अंशावतार थे । आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप में अवतीर्ण होंगे । समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया । ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं । शिवमहापुराण ( शतरुद्रसंहिता -37 ) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं , यह नहीं बताया गया है ।

6 - शरभावतार 


भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार । शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग ( हिरण ) तथा शेष शरभ पक्षी ( पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था ) का था । इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था । लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है , उसके अनुसार - हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था । हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे । तब भगवान शिव ने शरभावतार लिया और वे इसी रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की , लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई । यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े । तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई । उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की ।

7- गृहपति अवतार


 भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति । इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था । वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं । शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि : संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की । पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए । यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की । एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया । मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की । उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया । कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए । कहते हैं , पितामह ब्रह्मा ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था ।

8- ऋषि दुर्वासा


 भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है । धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया । उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा , विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए । उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे , जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता - पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे । समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा उत्पन्न हुए । विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया ।

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9- हनुमान


 भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है । इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था । शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया । सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया । समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया , जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए ।

10- वृषभ अवतार 


भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था । इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था । धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी । विष्णु ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए । विष्णु के इन पुत्रों ने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया । उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे । तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया ।

11- यतिनाथ अवतार


 भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया था । उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी , जिसके कारण भील दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पडे । धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक - आहुका भील दम्पत्ति रहते थे । एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए । उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की । आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा । इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया । प्रात : काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का मार डाला है । इस पर यतिनाथ बहुत दु : खी हुए । तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें । अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं । जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन : अपने पति से मिलने का वरदान दिया ।

12- कृष्णदर्शन अवतार


 भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है । इस प्रकार यह अवतार पूर्णत : धर्म का प्रतीक है । धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ । विद्या - अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया । नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गए । पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके , उनके धन को प्राप्त करे । तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया । अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए । उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है । विवाद होने पर कृष्ण दर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा । नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा- वह पुरुष शंकर भगवान हैं । यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है । पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की ।

13- अवधूत अवतार 


भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था । धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए । इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया । इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार - बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा । इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडना चाहा , वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया । यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की , जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया ।

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14- भिक्षुवर्य अवतार 


भगवान शंकर देवों के देव हैं । संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं । भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है । धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला । उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए । समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया । रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया । तब वह बालक भूख - प्यास से तड़पने लगा । इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची । तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन - पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है । यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया । शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उस बालक का पालन - पोषण किया । बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन : अपना राज्य प्राप्त किया ।

15- सुरेश्वर अवतार 


भगवान शंकर का सुरेश्वर ( इंद्र ) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है । इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया । धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था । वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था । उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा । इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम : शिवाय का जप करने लगा । शिवजी ने सुरेश्वर ( इंद्र ) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा । इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ । उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया । उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया ।

16- किरात अवतार


 किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी । महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल - कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा । वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे , तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर ( सुअर ) का रूप धारण कर वहां पहुंचा । अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया , उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया । शिव कीमाया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाए और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है , यह कहने लगे । इस पर दोनों में विवाद हो गया । अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया । अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया ।

17- सुनटनर्तक अवतार 


पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था । हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे । नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए । जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया । इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए । कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए । उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया ।

18- ब्रह्मचारी अवतार 


दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया । पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे । पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की । जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा । यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ । पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया । यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं ।

19- यक्ष अवतार .

यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था । धर्म ग्रंथों के अनुसार देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया । इसके बाद अमृत कलश निकला । अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं । देवताओं के इसी अभिमान को तोडने के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा । अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए । तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्यों के विनाशक शंकर भगवान हैं । सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी ।

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पार्वती जी भगवान शिव की केवल अर्धांगनी ही नहीं अपितु उनकी शिष्या भी बनी , वे नित्य ही अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करने के लिए शिव से अनेकों प्रश्न पूछती और उनपर चर्चा करती । एक दिन उन्होंने शिव से कहा पार्वती- प्रेम क्या है महादेव ? कृपया बताइए कि प्रेम का रहस्य क्या है , क्या है इसका असली स्वरूप । आप तो हमारे गुरू की भूमिका भी निभा रहे हैं इस प्रेम ज्ञान से अवगत कराना भी तो आप ही का दायित्व है । बताइए महादेव शिव- प्रेम क्या है ये तुम पूछ रही हो पार्वती ? प्रेम का स्वरूप क्या है ? प्रेम का रहस्य क्या है ? तुमने ही प्रेम के कई रूप उजागर किये हैं पार्वती । तुमसे ही प्रेम की कई अनुभूतियाँ हुई । तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर निहित है । पार्वती- क्या इन विभिन्न अनुभूतियों की अभिव्यक्ति सम्भव है प्रभु ?
शिव- सती के रूप में जब तुम अपने प्राण त्याग कर दूर चली गयी , मेरा जीवन , मेरा संसार , मेरा दायित्व सब निरर्थक और निराधार हो गया । मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगी अपने से दूर करके तुमने मुझे मुझसे भी दूर कर दिया पार्वती । ये ही तो प्रेम है पार्वती । तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति का इस सृष्टि का अपूर्ण हो जाना ये ही प्रेम है । तुम्हारे और मेरे पुनः मिलन कराने हेतु इस ब्रम्हांड का हर सम्भव प्रयास करना , हर सम्भव षडयंत्र रचना , इसका कारण हमारा असीम प्रेम ही तो है । तुम्हारा पार्वती के रूप में पुनः जन्म लेकर मेरे एकाकीपन और मुझे मेरे वैराग्य से बाहर निकलने पर विवश कर देना और मेरा विवश हो जाना ये प्रेम ही तो है पार्वती जब जब तुम अन्नपूर्णा के रूप में मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबंधन के शान्त करती हो या कामाख्या के रूप में मेरी कामना करती हो वह प्रेम की अनुभूति ही है । - तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विश्वास दिलाती रहती हो कि सिवाय मेरे इस संसार में तुम्हे किसी और का वर्चस्व स्वीकार नही तो यह प्रेम की अनुभूति ही तो है ।
जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का अहसास दिलाती है । तुम्हे सुखी देखकर मुझे सुख का जो आभास होता है वही तो प्रेम है पार्वती । जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूप में अपने संरक्षण में मुझे सशक्त बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी।जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पाँव रखा तो तुम्हे अपनी भूल का आभास हुआ और तुम्हारी जिव्हा बाहर निकली , वही प्रेम था पार्वती जब तुम अपना सौन्दर्यपूर्ण ललिता रूप जो कि अति भयंकर भैरवी रूप भी है , का दर्शन देती हो , और जब मैं तुम्हारे अति भाग्यशाली मंगला रूप जो कि उग्र चंडिका रूप भी है , का अनुभव करता हूँ जब मैं तुम्हे पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के , तो मैं अनुभव करता हूँ कि मैं सत्य देखने में सक्षम हूँ । जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो कि मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ । इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झाँककर मैं स्वयं को देख पाता हूँ कि मैं कौन हूँ तुम अपने दर्शन से साक्षात कराती हो और मैं आनन्द विभोर हो कर नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूँ • यही तो प्रेम है पार्वती । जब तुम स्वयं को मेरे प्रति बारम्बार समर्पित कर आभास कराती हो कि मैं तुम्हारे योग्य हूँ ।
जब तुमने मेरी वास्तविकता तो प्रतिबिंबित कर मेरे दर्पण के रूप को धारण कर लिया वही तो प्रेम था प्रिये पार्वती ।

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