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भगवान शिव याचक के लिए कल्पतरु हैं। जैसे कल्पवृक्ष अपनी छाया में आए हुए व्यक्ति को अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है, वैसे ही शिव के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं लौटता, वे उपासकों के समस्त अभाव दूर कर देते हैं और देते-देते अघाते भी नहीं हैं। शिवजी को याचक सदा ही अच्छे लगते हैं। शिवजी एक ही बार में इतना दे देते हैं कि फिर कभी किसी को मांगने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। शिव से दान पाने वाला हमेशा के लिए अयाचक हो जाता है। यहां तक कि वे भक्तों को अपना शिवपद भी प्रदान कर देते हैं। इसी से भगवान शिव ‘औढरदानी, ‘औघड़दानी’ या ‘अवढरदानी’ कहलाते हैं।
रामचरितमानस (२।४४।७-८) में महाराज दशरथ कहते हैं–
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी।
आरति हरहु दीन जनु जानी।।
तुलसीदासजी ने भगवान शिव के औढरदानीपन को दर्शाने के लिए विनय-पत्रिका में बहुत ही सुन्दर पद लिखा है जिसमें ब्रह्माजी शिवजी की दानशीलता से लोगों का भाग्य बदलते-बदलते हैरान होकर पार्वतीजी के पास जाकर उलाहना देते हुए कहते हैं–
बावरो रावरो नाह भवानी।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद बड़ाई भानी।।
निज घर की बरबात बिलोकहु, हौ तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी।।
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुख की नहीं निसानी।
तिन रंकन कौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी।।
दु:ख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भीख भली मैं जानी।।
प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुनि बिधि की बर बानी।
तुलसी मुदित महेस मनहि मन, जगत-मातु मुसुकानी।।
विधाता चतुरानन भवानी पार्वती से विनोद में कहते हैं–हे भवानी पार्वती! तुम अपने पति को समझा दो, आपके नाथ भोले तो बाबले और दानी हो गए हैं, सदा देते ही रहते हैं। उन पर देने की धुन सवार हो गई है।किसी याचक को देखने पर कहते हैं, मुझसे थोड़ा न मांगना, अधिक-से-अधिक इच्छित वस्तु मांगना।
दान देने के भी कुछ नियम हैं। वेद रीति यह है कि जिसने कभी दान नहीं दिया, उसे दान लेने का अधिकार नहीं है। ऐसे अदानी कंजूस ही भिक्षुक बनते हैं; परन्तु शिवजी वेदमार्ग का अनुसरण नहीं करते। वे ऐसे ही भिखमंगों को निरन्तर दान दिए जा रहे हैं और इनके दान देने की कोई सीमा भी नहीं है। रावण और बाणासुर आदि दैत्यों को इन्होंने बिना बिचारे अपार सम्पत्ति दे दी। आप अपने घर का ध्यान रखिए वरना आपके घर में श्मशान की राख, भांग, धतूरा और बेलपत्तों के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा। बर्तन के नाम पर एक खप्पर और वाहन के रूप में एक बूढ़ा बैल बचा है। घर की हालत इतनी खस्ता और दान देने का इतना शौक! आप अन्नपूर्णा हैं, पर आप कब तक इनकी पूर्ति करेंगी? आप इनके साथ न होतीं तो इनकी स्थिति क्या थी?
औघड़दानी शिव के दान को देखकर सरस्वती इसलिए खिन्न हैं कि शिवजी इतना दान दे रहे हैं कि वे इसका वर्णन करते-करते थक गयी हैं और लक्ष्मीजी इसलिए ईर्ष्या कर रहीं है कि जो वस्तुएं वैकुण्ठ में भी दुर्लभ हैं, वे शिवजी इन कंगालों को बांट रहे हैं।
ब्रह्माजी इसलिए परेशान हैं कि जिन लोगों के मस्तक पर मैंने सुख का नाम-निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजी अपनी परमोदारता और दानशीलता के कारण उन कंगालों को इन्द्रपद दे देते हैं, जिससे उनके लिए स्वर्ग सजाते-सजाते मेरे नाक में दम आ गया है। शिवजी ब्रह्मा का लिखा भाग्य पलटकर अनधिकारियों को स्वर्ग भेज रहे हैं। दीनता और दु:ख को कहीं भी रहने की जगह न मिलने से वे दु:खी हो रहे हैं। याचकता व्याकुल हो रही है। अर्थात् शिवजी की दानशीलता ने सभी दीनों और कंगालों को सुखी और राजा बना दिया है, पापियों को पुण्यात्मा बना दिया है; शिवजी ने प्रकृति के सारे नियम ही पलट दिए हैं।
ब्रह्माजी पार्वतीजी को उलाहना देते हुए कहते हैं अब मैं इन लोगों को क्या जबाव दूँ? अब हमारे ब्रह्मापद पर रहने का क्या औचित्य रह गया है? इसलिए अब मैं पदत्याग करना चाहता हूँ। लोगों की भाग्यलिपि बनाने का अधिकार कृपाकर आप किसी दूसरे को दे दीजिए। मैं तो इस अधिकार की अपेक्षा भीख मांगकर खाना अच्छा समझता हूँ। ब्रह्माजी को भी समझ में आ गया है कि क्यों न शिवजी का भिक्षुक बनकर ऐश्वर्य का भोग किया जाए। ब्रह्माजी की प्रेम, विनय और व्यंग्य से भरी हुई वाणी सुनकर भगवान शंकर व माता पार्वती मन-ही-मन मुसकराने लगे।
पढ़ने में तो इस पद में ब्रह्माजी द्वारा शिवजी की निन्दा प्रतीत होती है परन्तु वास्तव में इसमें शंकरजी की अतुलनीय उदारता और महिमा का व्यंग्यात्मक रूप से वर्णन किया गया है।
औघढ़दानी शिव और भस्मासुर!!!!!!
भगवान शिव के समान उदार दानी कहां मिलेगा? ऐसा दानी जो वरदान देकर स्वयं संकट में पड़ जाए। वृकासुर (भस्मासुर) के तप से भगवान शिव संतुष्ट हुए तो असुर ने वर मांगा–’जिसके सिर पर मैं हाथ रख दूँ, वह भस्म हो जाए।’ ‘उस दुष्ट के मन में पाप है, उसकी कुदृष्टि भगवती उमा पर है’–यह जानते हुए भी सर्वज्ञ शिव ने असुर को ‘एवमस्तु’ कह दिया।
असुर अपने वरदाता शिव के मस्तक पर ही हाथ रखने के लिए दौड़ा। जिसको स्वयं अपना वरदान दिया है, उस पर त्रिशूल कैसे चलाएं भोलेनाथ; सो भागने लगे भोले। शिवजी को संकट में देखकर लीलामय भगवान विष्णु ब्रह्मचारी का वेष धरकर असुर से बोले–’तुम इतने बुद्धिमान होकर इस श्मशानवासी औघड़ की बात पर विश्वास करते हो! भांग-धतूरे के खाने वाले की बात का क्या भरोसा! इसके वरदान की परीक्षा अपने सिर पर हाथ रखकर कर लो।’
वृकासुर को तो मरना था क्योंकि वह देवाधिदेव महादेव का अपमान कर रहा था। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी और उसने अपने सिर पर हाथ रखा और भस्म हो गया
औघड़दानी शिव का संसार को दान!!!!!!
धन धन भोलानाथ बांट दिए तीन लोक इक पल भर में ।
ऐसे दीनदयाल हो दाता कौड़ी नहीं रखी घर में।।
प्रथम दिया ब्रह्मा को वेद वो बना वेद का अधिकारी।
विष्णु को दे दिया चक्र सुदर्शन, लक्ष्मी सी सुन्दर नारी।।
इन्द्र को दे दी कामधेनु और ऐरावत सा बलकारी।
कुबेर को सारी वसुधा का कर दिया तुमने भण्डारी।।
अपने पास पत्ता भी नहीं रक्खा, रक्खा तो खप्पर कर में।।
ऐसे दीनदयाल हो दाता कौड़ी नहीं रखी घर में।।
अमृत तो देवताओं को दिया और आप हलाहल पान किया।
ब्रह्म ज्ञान दे दिया उसे जिसने तुम्हारा ध्यान किया।।
भागीरथ को गंगा दे दी सब जग ने स्नान किया।
बड़े-बड़े पापियों का तुमने एक पल में कल्याण किया।।
आप नशे में चूर रहो और पियो भांग नित खप्पर में।।
ऐसे दीनदयाल हो दाता कौड़ी नहीं रखी घर में।।
रावण को लंका दे दी और बीस भुजा दस शीश दिए।
रामचन्द्र को धनुष बाण और हनुमत को जगदीश दिए।।
मनमोहन को मोहनी दे दी और मुकुट तुम ईश दिए।
मुक्ति हेतु काशी में वास भक्तों को विश्वनाथ दिए।।
अपने तन पर वस्त्र न राखो मगन भयो बाघम्बर में।।
ऐसे दीनदयाल हो दाता कौड़ी नहीं रखी घर में।।
नारद को दई बीन और गन्धर्वों को राग दिया।
ब्राह्मण को दिया कर्मकाण्ड और संन्यासी को त्याग दिया।।
जिस पर तुम्हारी कृपा हुई उसको तुमने अनुराग दिया।
‘देवीसिंह’ कहे बनारसी को सबसे उत्तम भाग दिया।
जिसने चाहा उसी को दिया महादेव तुमने वर में।।
ऐसे दीनदयाल हो दाता कौड़ी नहीं रखी घर में।।
औघड़दानी भगवान शिव के लिए यही कहा जा सकता है कि शिव के साम्राज्य में कोई भी दु:खी नहीं रहने पाता। यहां मनुष्यों के शुभ-अशुभ कर्मों की पोथी नहीं खुलती। यहां किसी के पाप-पुण्य नहीं तौले जाते। यहां खरे-खोटे की परख नहीं की जाती। यहां मनुष्य जैसा चाहे करे पर शिव की शरण होने पर पायेगा वही जो वह चाहेगा।

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