श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत की महिमा, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत कथा हिन्दी में।

 श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत की महिमा,(Bhagwan Shree Krishna Vrat kahani). 

Bhagwan Shree Krishna kahani

भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर जी से कहते हैं कि " बीस करोड़ एकादशी व्रतों के समान अकेला श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत है । " ( भविष्योत्तर पुराण ) हम लोग शास्त्रों को बस ऊपर से ही पढ़ते हैं , कभी शास्त्रों की गहराई में नहीं जाते और यदि हम शास्त्रों की गहराई में जाएं तो हमें गूढ रहस्यों का पता चलेगा । पढ़ने व सुनने वालों की खुशी का उस समय कोई ठिकाना नहीं होगा , जब उन्हें यह पता चले कि ' बीस करोड़ एकादशी व्रतों के समान अकेला श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत है । ' श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को अन्न का त्याग कर देना , भूख लगे तो कुछ फलाहार खा लेना , इच्छा हुई तो कुछ मिष्ठान खा लेना , टाईम पास के लिए टी.वी. देख लेना या मोबाईल पर कोई वीडियो या फिर थोड़ी चैटिंग कर लेना , कुछ देर आराम कर लेना या थोड़ा गप्पे मार लेना या फिर कुछ हँसी मजाक कर लेना । टाईम पास ही तो करना है , हो गया श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत और मन को तसल्ली हो जाएगी कि अब हमें बीस करोड़ एकादशी व्रतों का पुण्य प्राप्त हो ही जाएगा । ये है आजकल के व्रत करने का स्टाईल । लेकिन यह व्रत नहीं है । यह व्रत के नाम पर अपने मन को झूठी तसल्ली देना है ।
व्रत माने होता है - प्रतिज्ञा यानि संकल्प । आज मन ही मन संकल्प लें कि मैं मन , वचन , कर्म से सिवाय कृष्ण नाम के कुछ और नहीं करूंगा या करुंगी । हर पल , हर क्षण , पूरा दिन और अर्धरात्रि पर्यन्त पूरा ध्यान स्वांस पर केन्द्रित रखते हुए श्रीकृष्ण नाम का आसरा लूंगा । स्वांस को भीतर जाते हुए मन ही मन ' श्रीकृष्ण ' स्मरण करुंगा और स्वांस को बाहर छोड़ते हुए मन ही मन ' शरणम् मम : ' का उच्चारण करुंगा । स्वांस स्वांस पर कृष्ण भजि , वृथा स्वांस जनि खोए । ना जाने या स्वांस की , आवन होवे ना होवे ।। आज के दिन टी.वी. व मोबाईल को त्याग कर चलते - फिरते , उठते - बैठते , खाते - पीते , सोते - जागते , हँसते - खेलते हर परिस्थिति में स्वांस पर ध्यान केन्द्रित करते हुए यदि आप श्रीकृष्ण नाम स्मरण करेंगे तो ही उसे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत कहा जाएगा , अन्यथा वह व्रत के नाम पर एन्जॉय से ज्यादा कुछ नहीं होगा । धर्मराज सावित्री से कहते हैं कि " भारत वर्ष में रहने वाला जो प्राणी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है , वह सौ जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है । " ( ब्रह्मवैवर्त पुराण ) इसका मतलब यह नहीं कि आज व्रत करने से पिछले सौ जन्मों के पापों से तो मुक्ति मिल ही जाएगी और अब पूरा साल खूब पाप करेंगे , फिर अगली जन्माष्टमी को व्रत करके उन पापों से भी छुट्टी हो ही जाएगी ।
          एक चोर ने चोरी की तो जज साहब ने उसे एक साल की सजा सुनाई । चोर गिड़गिड़ाने लगा - " साहब ! मुझे नहीं पता था कि चोरी करना इतना बड़ा अपराध है । आप मेरी यह पहली और आखिरी भूल समझकर मुझे माफ कर दीजिये , मैं आईन्दा कभी भी चोरी नहीं करूंगा । " जज साहब ने कहा - " ठीक है , तुम्हारी पहली गलती समझकर हम तुम्हें माफ कर रहे हैं । यदि दोबारा से गलती करोगे तो कड़े से कड़ा दण्ड मिलेगा । " चोर ने कहा - " ठीक है , साहब ! " दो दिन बाद उसी जज की अदालत में एक और चोरी का केस आ गया । लेकिन अबकी बार कोई वकील ही चोर के रुप में कटघरे में खड़ा है । वकील ने कहा - " जज साहब ! मैंने पहली बार ही चोरी की है । आपने एक चोर को भी तो माफ किया था , इसलिए आप मेरी पहली गलती समझकर मुझे भी माफ कर दीजिये । " जज साहब ने कहा - " चोर को इसलिए माफी दी गयी , क्योंकि वह चोरी का अंजाम नहीं जानता था । लेकिन तुमने तो सब कुछ जानते हुए भी चोरी की है , इसलिए तुम्हें तो सजा भी डबल मिलेगी । " इसका मतलब यह है कि आप व्रत इसलिए न करें कि आपको आपके किए गए पापों से मुक्ति मिल जाएगी । अरे , भाई ! जिसने पश्चाताप करते हुए भगवान के श्रीचरणों में सच्चे हृदय से समर्पण कर लिया , उसके पाप तो उसी समय नष्ट हो जाते हैं । बल्कि आप इसलिए व्रत करें कि आगे पाप करने की इच्छा ही मेरी समाप्त हो जाए !

 अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं । हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरं । चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।
 वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ ।
 नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं । 
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं स्मरणं मधुरं । वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा । सलिलं मधुरं कमलं मधुरम मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। 
गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं भुक्तं मधुरं । 
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा । 
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।

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