भगवान शिव और माता सती की पूरी कहानी।
शैव पुराणों में भगवान शिव की प्रधानता के कारण शिव को परम तत्त्व तथा शक्ति ( शिवा ) को उनकी अनुगामिनी बताया गया है । इसी के समानांतर शाक्त पुराणों में शक्ति की प्रधानता होने के कारण शक्ति ( शिवा ) को आदिशक्ति ( परम तत्त्व ) तथा भगवान शिव को उनका अनुगामी बताया गया है । पुराणों के अनुसार एक बार प्रजापति दक्ष ने विष्णु मूर्ति के अभिषेक के लिए सती को बहनों सहित वन भेजा था तदुपरांत सती को वहां एक रुद्राक्ष मिलता है बहनों के आग्रह से उसे वह नदी में फेंक देती है फिरमूर्ति अभिषेक होता है परंतु विष्णु मूर्ति में शिवलिंग ना होने के कारण मूर्ति मंदिर में प्रवेश नहीं कर पाती है तब दक्ष नारायणी यज्ञ करने का निश्चय करते हैं उसके सफल होने के लिए सती बहनों सहित 108 परिजात के फूल लेने के लिए वन जाती है तभी उसकी दधीचि से भेंट होती है फिर दधीचि सती को मूर्ति मंदिर में प्रवेश ना होने का कारण बताते हैं फिर मूर्तिकार से शिवलिंग लेकर सती उस अपूर्ण विष्णु मूर्ति पर रख देती है इससे विष्णुमूर्ति निर्विघ्न मंदिर में प्रवेश कर जाती है शिवलिंग को देख दक्ष प्रजापति को बहुत क्रोध आता है सती पर क्रोधित होकर दक्ष उसे प्रायश्चित के लिए 100000 कमलों के के फूलों पर विष्णु नाम लिखने का आदेश देता है सती वह कार्य पूर्ण कर लेती है पर कमल के फूलों पर शिव नाम देखकर दक्ष को और क्रोध आता है पर वह शिव की माया समझकर सती को क्षमा कर देता है तदुपरांत दक्ष महा मंडल की बैठक आरंभ करता है और उसमें शिव को आमंत्रित करता है और उनका का अपमान करके दक्ष अपूजनीय होने का शिव को श्राप देता है फिर नंदा व्रत का अनुष्ठान करके सती शिव को प्रसन्न कर देती है फिर ब्रह्मा की आज्ञा पर दक्ष शिव का विवाह अपनी पुत्री सती के साथ कर देता है श्रीमद्भागवतमहापुराण में अपेक्षाकृत तटस्थ वर्णन है । इसमें दक्ष की स्वायम्भुव मनु की पुत्री प्रसूति के गर्भ से 16 कन्याओं के जन्म की बात कही गयी है ।
देवीपुराण ( महाभागवत ) में 14 कन्याओं का उल्लेख हुआ है तथा शिवपुराण में दक्ष की साठ कन्याओं का उल्लेख हुआ है जिनमें से 27 का विवाह चंद्रमा से हुआ था । इन कन्याओं में एक सती भी थी । शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मा जी को भगवान शिव के विवाह की चिंता हुई तो उन्होंने भगवान विष्णु की स्तुति की और विष्णु जी ने प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी को बताया कि यदि भगवान शिव का विवाह करवाना है तो देवी शिवा की आराधना कीजिए ।
उन्होंने बताया कि दक्ष से कहिए कि वह भगवती शिवा की तपस्या करें और उन्हें प्रसन्न करके अपनी पुत्री होने का वरदान मांगे । यदि देवी शिवा प्रसन्न हो जाएगी तो सारे काम सफल हो जाएंगे । उनके कथनानुसार ब्रह्मा जी ने दक्ष से भगवती शिवा की तपस्या करने को कहा और प्रजापति दक्ष ने देवी शिवा की घोर तपस्या की । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवा ने उन्हें वरदान दिया कि मैं आप की पुत्री के रूप में जन्म लूंगी । मैं तो सभी जन्मों में भगवान शिव की दासी हूँ ; अतः मैं स्वयं भगवान शिव की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करूंगी और उनकी पत्नी बनूँगी । साथ ही उन्होंने दक्ष से यह भी कहा कि जब आपका आदर मेरे प्रति कम हो जाएगा तब उसी समय मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी , अपने स्वरूप में लीन हो जाऊँगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूँगी । प्रत्येक सर्ग या कल्प के लिए दक्ष को उन्होंने यह वरदान दे दिया । तदनुसार भगवती शिवा सती के नाम से दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेती है और घोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न करती है तथा भगवान शिव से उनका विवाह होता है । इसके बाद की कथा श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित कथा के काफी हद तक अनुरूप ही है ।
प्रयाग में प्रजापतियों के एक यज्ञ में दक्ष के पधारने पर सभी देवतागण खड़े होकर उन्हें आदर देते हैं परंतु ब्रह्मा जी के साथ शिवजी भी बैठे ही रह जाते हैं । लौकिक बुद्धि से भगवान शिव को अपना जामाता अर्थात पुत्र समान मानने के कारण दक्ष उनके खड़े न होकर अपने प्रति आदर प्रकट न करने के कारण अपना अपमान महसूस करता है और इसी कारण उन्होंने भगवान शिव के प्रति अनेक कटूक्तियों का प्रयोग करते हुए उन्हें यज्ञ भाग से वंचित होने का शाप दे दिया ।
इसी के बाद दक्ष और भगवान शिव में मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया । तत्पश्चात अपनी राजधानी कनखल में दक्ष के द्वारा एक विराट यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें जिसमें उन्होंने न तो भगवान शिव को आमंत्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को सती ने रोहिणी को चंद्रमा के साथ विमान से जाते देखा और सखी के द्वारा यह पता चलने पर कि वे लोग उन्हीं के पिता दक्ष के विराट यज्ञ में भाग लेने जा रहे हैं , सती का मन भी वहाँ जाने को व्याकुल हो गया । भगवान शिव के समझाने के बावजूद सती की व्याकुलता बनी रही और भगवान शिव ने अपने गणों के साथ उन्हें वहाँ जाने की आज्ञा दे दी ।
परंतु वहाँ जाकर भगवान शिव का यज्ञ - भाग न देखकर सती ने घोर आपत्ति जतायी और दक्ष के द्वारा अपने सती के ) तथा उनके पति भगवान शिव के प्रति भी घोर अपमानजनक बातें कहने के कारण सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर डाला । शिवगणों के द्वारा उत्पात मचाये जाने पर भृगु ऋषि ने दक्षिणाग्नि में आहुति दी और उससे उत्पन्न ऋभु नामक देवताओं ने शिवगणों को भगा दिया । इस समाचार से अत्यंत कुपित भगवान शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया और वीरभद्र ने गण सहित जाकर दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर डाला ; शिव के विरोधी देवताओं तथा ऋषियों को यथायोग्य दंड दिया तथा दक्ष के सिर को काट कर हवन कुंड में जला डाला ।
तत्पश्चात देवताओं सहित ब्रह्मा जी के द्वारा स्तुति किए जाने से प्रसन्न भगवान शिव ने पुनः यज्ञ में हुई क्षतियों की पूर्ति की तथा दक्ष का सिर जल जाने के कारण बकरे का सिर जुड़वा कर उन्हें भी जीवित कर दिया । फिर उनके अनुग्रह से यज्ञ पूर्ण हुआ ।
शाक्त मत में शक्ति की सर्वप्रधानता होने के कारण ब्रह्मा , विष्णु एवं शिव तीनों को शक्ति की कृपा से ही उत्पन्न माना गया है । देवीपुराण ( महाभागवत ) में वर्णन हुआ है कि पूर्णा प्रकृति जगदंबिका ने ही ब्रहमा , विष्णु और महेश तीनों को उत्पन्न कर उन्हें सृष्टि कार्यों में नियुक्त किया । उन्होंने ही ब्रहमा को सृजनकर्ता , विष्णु को पालनकर्ता तथा अपनी इच्छानुसार शिव को संहारकर्ता होने का आदेश दिया । आदेश - पालन के पूर्व इन तीनों ने उन परमा शक्ति पूर्णा प्रकृति को ही अपनी पत्नी के रूप में पाने के लिए तप आरंभ कर दिया । जगदंबिका द्वारा परीक्षण में असफल होने के कारण ब्रह्मा एवं विष्णु को पूर्णा प्रकृति अंश रूप में पत्नी बनकर प्राप्त हुई तथा भगवान शिव की तपस्या से परम प्रसन्न होकर जगदंबिका ने स्वयं जन्म लेकर उनकी पत्नी बनने का आश्वासन दिया ।
तदनुसार ब्रह्मा जी के द्वारा प्रेरित किए जाने पर दक्ष ने उसी पूर्णा प्रकृति जगदंबिका की तपस्या की और उनके तप से प्रसन्न होकर जगदंबिका ने उनकी पुत्री होकर जन्म लेने का वरदान दिया तथा यह भी बता दिया कि जब दक्ष का पुण्य क्षीण हो जाएगा तब वह शक्ति जगत को विमोहित करके अपने धाम को लौट जाएगी ।
उक्त वरदान के अनुरूप पूर्णा प्रकृति ने सती के नाम से दक्ष की पुत्री रूप में जन्म ग्रहण किया और उसके विवाह योग्य होने पर दक्ष ने उसके विवाह का विचार किया । दक्ष अपनी लौकिक बुद्धि से भगवान शिव के प्रभाव को न समझने के कारण उनके वेश को अमर्यादित मानते थे और उन्हें किसी प्रकार सती के योग्य वर नहीं मानते थे । अतः उन्होंने विचार कर भगवान शिव से शून्य स्वयंवर सभा का आयोजन किया और सती से आग्रह किया कि वे अपनी पसंद के अनुसार वर चुन ले । भगवान शिव को उपस्थित न देख कर सती ने ' शिवाय नमः ' कह कर वरमाला पृथ्वी पर डाल दी तथा महेश्वर शिव स्वयं उपस्थित होकर उस वरमाला को ग्रहण कर सती को अपनी पत्नी बनाकर कैलाश लौट गये । दक्ष बहुत दुखी हुए । अपनी इच्छा के विरुद्ध सती के द्वारा शिव को पति चुन लिए जाने से दक्ष का मन उन दोनों के प्रति क्षोभ से भर गया । इसीलिए बाद में अपनी राजधानी में आयोजित विराट यज्ञ में दक्ष ने शिव एवं सती को आमंत्रित नहीं किया । फिर भी सती ने अपने पिता के यज्ञ में जाने का हठ किया और शिव जी के द्वारा बार - बार रोकने पर अत्यंत कुपित होकर उन्हें अपना भयानक रूप दिखाया । इससे भयाक्रांत होकर शिवजी के भागने का वर्णन हुआ है और उन्हें रोकने के लिए जगदंबिका ने 10 रूप ( दश महाविद्या का रूप ) धारण किया । फिर शिवजी के पूछने पर उन्होंने अपने दशों रूपों का परिचय दिया ।
फिर शिव जी द्वारा क्षमा याचना करने के पश्चात पूर्णा प्रकृति मुस्कुरा कर अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाने को उत्सुक हुई तब शिव जी ने अपने गमों को कह कर बहुसंख्यक सिंहों से जुते रथ मँगवाकर उस पर आसीन करवाकर भगवती को ससम्मान दक्ष के घर भेजा । शेष कथा कतिपय अंतरों के साथ पूर्ववर्णित कथा के प्रायः अनुरूप ही है , परंतु इस कथा में कुपित सती छायासती को लीला का आदेश देकर अंतर्धान हो जाती है और उस छायासती के भस्म हो जाने पर बात खत्म नहीं होती बल्कि शिव के प्रसन्न होकर यज्ञ पूर्णता का संकेत दे देने के बाद छायासती की लाश सुरक्षित तथा देदीप्यमान रूप में दक्ष की यज्ञशाला में ही पुनः मिल जाती है और फिर देवी शक्ति द्वारा पूर्व में ही भविष्यवाणी रूप में बता दिए जाने के बावजूद लौकिक पुरुष की तरह शिवजी विलाप करते हैं तथा सती की लाश सिर पर धारण कर विक्षिप्त की तरह भटकते हैं । इससे त्रस्त देवताओं को त्राण दिलाने तथा परिस्थिति को सँभालने हेतु भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती की लाश को क्रमश : खंड - खंड कर काटते जाते हैं । इस प्रकार सती के विभिन्न अंग तथा आभूषणों के विभिन्न स्थानों पर गिरने से वे स्थान शक्तिपीठ की महिमा से युक्त हो गये । इस प्रकार 51 शक्तिपीठों का निर्माण हो गया । फिर सती की लाश न रह जाने पर भगवान् शिव ने जब व्याकुलतापूर्वक देवताओं से प्रश्न किया तो देवताओं ने उन्हें सारी बात बतायी । इस पर निःश्वास छोड़ते हुए भगवान् शिव ने भगवान विष्णु को त्रेता युग में सूर्यवंश में अवतार लेकर इसी प्रकार पत्नी से वियुक्त होने का शाप दे दिया और फिर स्वयं 51 शक्तिपीठों में सर्वप्रधान ' कामरूप ' में जाकर भगवती की आराधना की और उस पूर्णा प्रकृति के द्वारा अगली बार हिमालय के घर में पार्वती के रूप में पूर्णावतार लेकर पुनः उनकी पत्नी बनने का वर प्राप्त हुआ ।
इस प्रकार यही सती अगले जन्म में पार्वती के रूप में हिमालय की पुत्री बनकर पुनः भगवान शिव को पत्नी रूप में प्राप्त हो गयी ।
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट ।। नाभिः ।
प्रनु अर्थात् गाय रुद्रो की माता , वसुओ की पुत्री , अदिति पुत्रो की बहन और घृतरूप अमृत का खजाना है
अतः प्रत्येक विचारशील पुरुष को मैंने यही समझाकर कहा है कि निरपराध एवं अवध्य गौ का वध न करो । यत्र गावः प्रसन्नाः स्युः प्रसन्नास्तत्र सम्पदः ।
यत्र गावो विषण्णाः स्युर्विषण्णास्तत्र सम्पदः ।।
अर्थात जहाँ गाय प्रसन्न रहती है , वहां सभी संपत्तियां प्रसन्न रहती है । जहाँ गाय दुःख पाती है , वहां सारी सम्पदाये दुखी हो जाती है ।। i ,
गौ माता के विषय में श्रीमदभागवतमहापुराण में कहा गया है -
वेदादिर्वेदमाता च पौरुषं सुक्तमेव च ।
त्रयी भागवतं चौव द्वादशाक्षर एव च ।।
अर्थात गाय में , वेद में , ॐकार में , द्वादशाक्षर मन्त्र ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) में सूर्य में , गायत्री में वेदत्रयी में , अंतर नहीं है ये सब साक्षात् भगवत्स्वरूप ही है भागवत का श्रवण करना , भगवान् का चिंतन करना , तुलसी की पूजा करना , जल सींचना और गाय की सेवा करना , कहते है कि इनमे कोई अंतर नहीं है ।
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